शनिवार, 3 सितंबर 2016

क्या आपने एक मुर्गे को चाकू से  दूसरे मुर्गे की जान लेने तक मनोरंजन हेतु  लड़ाते हुए देखा है ?
 (कुकड़ा गाली उर्फ़ मुर्गा बाज़ार ,गांव कस्‍बों में मनोरंजन का साधन )


                           (देखिये मुर्गों  के पैर  में चाकू बंधा  हुआ है  )
                    





मुझे याद है अपनी नौकरी के शुरुवाती  दिनों  की ।  जब  मैंने ट्राइबल एरिया से नौकरी शुरू की थी । अनेको  गाव बस्तर जिले के  काफी नजदीक लगे हुए थे ।  बस्तर में मुर्गा लड़ाई को आदिवासियों की संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है ।

मै बाज़ार के दिन में  देखता था की उस दिन वहाँ पर  कुछ लोग बगल में मुर्गा दबाये उसे बड़े  लाड प्यार से  ले जा रहे है। लोगो से  पता लगा की इन गावो में मुर्गा लड़ाई होता है.।  ज्यादा  पता करने पर ज्ञात हुआ की " मुर्गा लड़ाई "  अत्यंत ही  रोचक होती है।
इस पर कही कही जीतने वाले मुर्गे के नाम से राशि तक लोग लगाते है।
बस्तर एवं उससे लगे  गांव  कस्‍बों में  तब यह मनोरंजन का एक प्रमुख   हिस्‍सा था ।

 वहां पर लड़ने के लिए मुर्गा को खास तौर पर न केवल प्रशिक्षण दिया जाता है, बल्कि उसके खान-पान पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है।

 इतिहास के पन्नों में मुर्गा लड़ाई की कोई प्रमाणिक जानकारी तो नहीं मिलती, लेकिन आदिवासी समाज में मुर्गा लड़ाई कई पीढ़ियों से आम जिंदगी का मनोरंजन का हिस्सा बना हुआ है।

भले ही दुनिया पशु-पंक्षियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित हों, मगर बस्तरमें जैसे कच्चे ,संबलपुर (भानुप्रतापपुर ) के इर्द गिर्द  व् लगे हुए धमतरी व बालोद जिले के इलाके में मुर्गा लड़ाई सबसे बड़ा और लोकप्रिय गेम था ।  मुर्गा लड़ाई के लिए कई क्षेत्रों में मुर्गा बाजार भी लगाया जाता था ।
 बाजार के पीछे मुर्गे की लड़ाई का अखाड़ा सजा रहता था और माड़ी, हंडिया, देसी दारू और अंगरेजी शराब के नशे में टुन्न लोग एक-दूसरे की मुर्गे की जान लेने को आतुर मुर्गे पर दांव लगाते रहते थे।

वैसे तो मुर्गे की लड़ाई का खेल आदिवासियों के लिए सदियों पुराना है ,बताया जाता  है लेकिन  काफी पहले इस खेल में मुर्गे की जान नहीं जाती थी,।
लेकिन मैंने  देखा की आदिवासियों के इस पारंपरिक खेल के वक्त मुर्गे के पंजे में तीखे नश्तर बांधे जाते है । और इस लड़ाई में प्रशिक्षित मुर्गे उतारे जाते हैं।
लड़ने के लिए तैयार मुर्गे के एक पैर में अंग्रेजी के अच्छर 'यू' आकार का एक हथियार बंधा हुआ होता है जिसे 'कत्थी' कहा जाता है.। ऐसा भी  नहीं  की यह कत्थी कोई भी  व्यक्ति बाँध सकता हो , इसे  बांधने की भी कला है।
 कतथी बांधने वालों को कातकीर कहा जाता है जो इस कला के माहिर होते हैं.कत्थी बांधने के बाद मुर्गे लड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं.।

जब दो मुर्गे लड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं तो दर्शक के रूप में उपस्थित लोग अपने मनपसंद मुर्गे पर दांव लगाते हैं.। मुर्गे की लड़ाई आमतौर पर उनके शारीरिक छमता पर  10 मिनट तक चलती है. इस दौरान मुर्गे को उत्साहित करने के लिए मुर्गाबाज (मुर्गा का मालिक) तरह-तरह का आवाज निकालता रहता है, जिसके बद मुर्गा और खतरनाक हो जाता है.लड़ने के लिए मुर्गा को खास तौर पर न केवल प्रशिक्षण दिया जाता है,।
मुर्गे आपस में कत्थी द्वारा एक दूसरे पर वार करते रहते हैं. इस दौरान मुर्गा लहुलूहान हो जाता है. कई मौकों पर पर तो कत्थी से मुर्गे की गर्दन तक कट जाती है. मुर्गो की लड़ाई तभी समाप्त होती है जब एक मुर्गा घायल हो जाए या मैदान छोड़कर भाग जाए. एक अन्य मुर्गाबाज ने मुझे चर्चा में बताया कि मुर्गो को विशेष रूप से तैयार करने के लिए उसको पौष्टिक खाना तो दिया ही जाता है, कई बार ऐसे मुर्गो को मांस भी खिलाया जाता है. लड़ाकू बनाने के लिए मुर्गो को ना केवल मादा मुर्गे से दूर रखा जाता है, बल्कि उसे कई दिनों तक अंधेरे में भी रखा जाता है.। जीतने वाला मृत मुर्गे को भी  साथ में ले  रात की पार्टी मनाता है।
अन्दरूनी कुछ बाजारों और मेलों में 'मुर्गा लड़ाई' का खास प्रकार का आयोजन किया जाता है. कई इलाकों में प्रतियोगिता भी  आयोजित होती है। .

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